सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

जीवन से विदा लेती ध्वनि : रमेश शर्मा की कहानी

1 अक्टूबर 2023 देशबन्धु के समस्त एडिशन में रविवारीय साहित्य पृष्ठ पर रमेश शर्मा की लिखी कहानी "जीवन से विदा लेती ध्वनि" प्रकाशित हुई है। यह कहानी भूलवश उमाकांत मालवीय के नाम से देशबन्धु न्यूज पोर्टल में प्रकाशित हो गयी है। लेखक द्वारा संपादक के संज्ञान में लाये जाने पर उन्होंने ई पेपर में इसे ठीक कर दिया है।

कहानी : जीवन से विदा लेती ध्वनि

-----------------------------------

■ रमेश शर्मा   


देशबन्धु 2.10.2023 अंक में भूल सुधार

'बाबू जी धीरे चलना... प्यार में ज़रा संभलना....!'  वह जिस शख़्स के पीछे सड़क पर चल रहा था उसके सेल फोन में उस वक्त यह फिल्मी गीत बज रहा था । यूं तो इस धुन को उसने पहले भी सुन रखा था पर इसे उस शख़्स के पीछे चलते हुए उस वक्त सुनना न जाने क्यों आज उसे अच्छा लगने लगा । उसे हमेशा लगता कि  हर चीज की एक नियत जगह होती है दुनियां में,  और उस नियत  जगह पर उस चीज की खूबसूरती अपने आप बढ़ जाती है । सुबह का यह समय रायगढ़ की गज़मार पहाड़ी के नीचे घूमती हुई चिकनी सडकों पर चलते हुए यूं भी कितना खूबसूरत हो जाया करता है। इस समय में इस धुन को सुनते हुए लगा उसे  कि कुछ चीजें अपनी जगह अपने आप ढूँढ लेती हैं ! अगर हम उन्हें उनकी सही जगहों पर पा सकें तो कितना शुकून मिलता है । इस फ़िल्मी धुन को सुनने की खातिर ही उसने आगे जा रहे  उस शख्श के कदमों की रफ़्तार के साथ अपने कदमों की रफ़्तार को संयोजित करने का भरपूर प्रयास किया । कदमों को संयोजित करने की कोशिश में उसे बहुत सी बातें याद आने लगीं।  

" एडजेस्टमेंट करना तो कोई तुमसे सीखे सियो !" निया ने एक बार उससे सीरियस होकर कहा था । उसका एडजेस्टमेंट शब्द पर इतना जोर था कि वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वह कहना क्या चाहती है ? उसने निया से जिरह करना मुनासिब नहीं समझा कि आखिर उसे इस शब्द से आपत्ति क्यों है। इस तरह जिरह न करना भी उसकी परिस्थिति  के मुताबिक एक किस्म का एडजेस्टमेंट ही था।

एक बार सामान्य सी बातचीत के दौरान उसने उससे पूछा था - "मुक्ति का रास्ता कठिन क्यों होता है निया ? इतना कठिन कि हम हर जगह एडजेस्टमेंट करने को मजबूर हो जाते हैं । एक ही रास्ता बचता है हमारे पास, दुनियां में अपने कदमों को गतिशील रखना है तो खुद को भीतर से बदल डालो ।"


उसकी बातें सुनकर अचानक निया का चेहरा एक किताब की शक्ल का होने लगा था । एक ऐसी किताब जिसमें जीवन में मिले कठोर अनुभवों की कहानियां पढ़ी जा सकें ।

"मैं ऐसा नहीं मानती सियो !  हर जगह एडजेस्टमेंट करना सबके लिए संभव नहीं ।मेरे लिए तो बिल्कुल भी नहीं । 

इस तरह तो मुझे कभी मुक्ति नहीं चाहिए । चलो मान लिया कि बदलाव  जीवन जीने की एक कला है।सत्ता और दुनियावी रिश्तों से एडजेस्टमेंट का एक हुनर ! यह सोचकर हम  दूसरों के अनुरूप अपने को भीतर से हर वक़्त संपादित करते रहते हैं , पर यह तो अपने आपसे धोखा  हुआ सियो ! आखिर कब तक हम सेल्फ एडिटिंग का शिकार होते रहें ? कब तक अपने को धोखे में रखें? दुनियां को खुश रखने के लिए सेल्फ एडिटिंग का बोझ आखिर कोई क्यों ढोए सियो ? 

और इस एडजेस्टमेंट शब्द को लेकर उनमें  अक्सर मतभेद हो जाया करते थे ।

वह उस वक्त सोचता रहा .... क्या एडजेस्टमेंट की भी अपनी कोई खूबसूरत और रचनात्मक जगह होती है ? 

शायद होती हो, शायद नहीं भी ! पर अब तक उसने जो देखा समझा था, उससे तो यही लगा था उसे कि एडजेस्टमेंट की कोई सुन्दर जगह नहीं होती । आदमी अनिच्छा से, लालच से या  मजबूरी में एडजेस्टमेंट करता रहता है । जीवन भर । उसकी तरह। नौकरी की खातिर । नौकरी बचाने के लिए । 

उसे लगता है प्राइवेट संस्थान में काम करते हुए अगर वह एडजेस्टमेंट न करे तो उसकी नौकरी कभी भी चली जाए | सत्ता के सुर में सुर न मिलाने की वजह से कई मीडिया कर्मियों को उनके मालिक नौकरी से निकाल चुके थे। यह सब आज भी वह अपनी नंगी आँखों से देख रहा है । यह सोचकर ही उसके भीतर डर की एक चिड़िया आकर बैठ गयी थी ।

सामने चल रहा शख़्स अपने ही धुन में चला जा रहा था । सर्दियों का मौसम था । पुमा के स्पोर्ट्स शू उस शख़्स के पांवों के फिटनेस को जहां चुस्त दुरुस्त किये हुए थे वहीं उसने अपनी देह पर एक पश्मीने का शाल ओढ़ रखा था । चीजें उसके ऊपर कितना तो फब रही थीं । उसे फिर से महसूस हुआ कि हर चीज का अपनी सही जगहों पर होना भी कितना जरूरी है । दुधिया कलर का शाल ओढ़े उस ब्यक्ति के पीछे पीछे चलना आज उसे दोहरा शुकून दे गया था ।

"शुकून भी कितना दुर्लभ हो गया है जीवन में ।" - शुकून मिलने के इस दुर्लभ अनुभव ने चलते चलते उसके मन को इस  एहसास से भी भर दिया था ।

"बड़े शहर जेब कतरों की तरह होते हैं । वे हमें लुभाते हैं , चकित करते हैं और चुपके से हमारी जेब काट लेते हैं।" बाजू में चल रहे एक कस्बाई आदमी को एक दूसरे कस्बाई आदमी से यह कहते हुए उसने जब सुना तो उसके शब्दों से वह थोड़ा अचम्भित सा हुआ ।  चलते चलते वह सोचने लगा .... लोगों के पास न जाने किस-किस तरह के अनुभव होते हैं जिसे वे कितनी खूबसूरती से व्यक्त कर साझा भी कर लेते हैं । 

साझा करने की बात को लेकर उसके भीतर बहुत सी बातें फिर से आने जाने लगीं । वह सोचने लगा .... बातों का साझापन भी जीवन की कई  छोटी छोटी कहानियों को अपने साथ लेकर चलता है।

वह अपने भीतर भी कुछ टटोलने लगा । शायद कोई कहानी हो जिसे वह किसी से सुना सके । जीवन  की सारी कहानियाँ समझौतों में लिथड़ी हुईं मिलीं उसे ।

उसके मेनेजर का आदेश उसे याद आने लगा -"यह बात गाँठ बांधकर रख लो कि सत्ता के बिरूद्ध कोई टिप्पणी कहीं भी नहीं करनी किसी को । सत्ता कुमार्गी हो जाए तब भी उसकी हाँ में हाँ मिलाना , उसका सपोर्ट करना निहायत जरूरी है हमारे लिए । सबने कितनी बेशर्मी से उस दिन हाँ में हाँ मिलाया था ।

उसके बाद किस तरह उसके साथी और वह खुद भी सोशल मीडिया में सत्ता के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ट्रोल आर्मी की भूमिका में आ गए थे ।  

यह सब कहानी वह किसे सुनाए? किस तरह साझा करे किसी से ?सुनते ही लोग थू करने लगेंगे उस पर । अचानक उसे लगा कि उसका ज़मीर मर चुका है । एक गालीबाज़ को, एक बलात्कारी को भी वह अब सही ठहराने  लगा है। उनके पक्ष में तर्क देने लगा है । सोचकर अचानक लगा उसे, जैसे  उसने अपने वजूद को ही किसी गलत जगह पर लाकर टिका दिया है । कुछ समय के लिए उसे अपने आप से घिन्न सी आने लगी ।  

आसमान में सूरज निकल चुका था । सडकों पर चहल पहल बढ़ गयी थी । उसके आगे-आगे चलने वाला शख़्स अब अपने गन्तब्य को जा चुका था । उसके जाने के साथ साथ "बाबू जी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना......" वाले गीत की ध्वनि भी उससे  विदा ले चुकी थी । उस वक्त उसके मन में कुछ इस तरह के भाव आ-जा रहे थे कि उसे लगने लगा जैसे अचानक उसके जीवन में किसी ध्वनि का इंतकाल हो चुका है ।

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

रायगढ़ जिले के विभिन्न आयोजनों में शामिल होंगे वित्त मंत्री ओम प्रकाश चौधरी। महापल्ली में उनके हाथों स्व.हेमसुंदर गुप्त की मूर्ति का होगा अनावरण

रायगढ़ । रायगढ़ विधायक एवम  सूबे के वित्त मंत्री ओपी चौधरी गुरुवार 7 मार्च 2024 को रायगढ़ जिले के विभिन्न आयोजनों में शामिल होंगे। निर्धारित दौरे के मुताबिक इन आयोजनों में शामिल होने के लिए वे प्रातः 8 बजे रायपुर से सड़क मार्ग द्वारा कार से रवाना होकर 12 बजे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का लोकार्पण करने के लिए पुसौर पहुंचेंगे।आयोजन उपरांत पुसौर से रायगढ़ के लिए वे रवाना हो जाएंगे और एक बजे रायगढ़ मिनी स्टेडियम में मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना कार्यक्रम में शामिल होंगे।रायगढ़ में ही अपरान्ह 1.30 बजे डिग्री कॉलेज रायगढ़ के वार्षिकोत्सव आयोजन में वे शामिल होकर विद्यार्थियों का मनोबल बढ़ाएंगे। रायगढ़ से ग्राम जुरडा के लिए वे फिर रवाना हो जाएंगे और अपरान्ह 3 बजे ग्राम जुरडा में आयोजित जिला स्तरीय पशु मेला कार्यक्रम में शामिल होंगे और ग्रामीणों से संवाद भी करेंगे। कल के उनके व्यस्त कार्यक्रम में जो अंतिम कार्यक्रम है वह महापल्ली ग्राम में सम्पन्न होगा जहां वे  स्वर्गीय हेमसुंदर गुप्त की मूर्ति का अनावरण करेंगे और साथ ही सभा को संबोधित करेंगे। महापल्ली के इस आयोजन में उनके साथ पूर्व विध...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्...

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।       ...

'नेलकटर' उदयप्रकाश की लिखी मेरी पसंदीदा कहानी का पुनर्पाठ

उ दय प्रकाश मेरे पसंदीदा कहानी लेखकों में से हैं जिन्हें मैं सर्वाधिक पसंद करता हूँ। उनकी कई कहानियाँ मसलन 'पालगोमरा का स्कूटर' , 'वारेन हेस्टिंग्ज का सांड', 'तिरिछ' , 'रामसजीवन की प्रेम कथा' इत्यादि मेरी स्मृति में आज भी जीवंत रूप में विद्यमान हैं । हाल के दो तीन वर्षों में मैंने उनकी कहानी ' नींबू ' इंडिया टुडे साहित्य विशेषांक में पढ़ी थी जो संभवतः मेरे लिए उनकी अद्यतन कहानियों में आखरी थी । उसके बाद उनकी कोई नयी कहानी मैंने नहीं पढ़ी।वे हमारे समय के एक ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियां खूब पढ़ी जाती हैं। चाहे कहानी की अंतर्वस्तु हो, कहानी की भाषा हो, कहानी का शिल्प हो या दिल को छूने वाली एक प्रवाह मान तरलता हो, हर क्षेत्र में उदय प्रकाश ने कहानी के लिए एक नई जमीन तैयार की है। मेर लिए उनकी लिखी सर्वाधिक प्रिय कहानी 'नेलकटर' है जो मां की स्मृतियों को लेकर लिखी गयी है। यह एक ऐसी कहानी है जिसे कोई एक बार पढ़ ले तो भाषा और संवेदना की तरलता में वह बहता हुआ चला जाए। रिश्तों में अचिन्हित रह जाने वाली अबूझ धड़कनों को भी यह कहानी बेआवाज सुनाने लग...